Wednesday, January 25, 2017

आधा वो..

दरवाज़ा बजा| मैं तो मानो खोलने के लिए ही बैठी थी, तुम्हारे इंतज़ार में| मैंने दरवाज़ा खोला और सामने तुम खड़े थे| पुरे चार साल बाद मैंने तुम्हे देखा| हमेशा से कहती थी की काला रंग तुमपर अच्छा लगता हैं| अज भी ये काला टी-शर्ट कितना प्यारा लग रहा था और ऊपर डाला हुआ हरा मफलर| थोड़े लम्बे हो गये थे शायद और चश्मा भी लग गया अब तो| पर वो क्या कहते हैं एकदम dashing लग रहे थे| मैं तो चार साल बाद भी वेसी ही थी.. अनसुलझे बाल कमर तक आते हुए, कानों में वो झुमकी जो हमने खरीदी थी रतलाम से, और बड़ी वाली लाल बिंदी, तुम्हे बहुत पसंद थी ना.. आज तैयार होते होते यही सब याद कर रही थी| पेट में तितलियाँ उड़ रही थी| मैं मन ही मन झूम रही थी, मैं मन ही मन गा रही थी.. अज चार सालो बाद कांच अच्छा लग रहा था|
और जिस पल का इन्तेजार कर रही थी वो आ गया, तुम मेरे सामने खड़े थे| मुस्कुराये मुझे देख कर पर वो बात नही थी उस हँसी में, होती भी कैसे. चार साल में थोडा तो असहज हो ही जाते थे, वो भी तब जब किसी और के साथ रहो तो| मैं थोडा सा पीछे हटी और तुम अंदर आए| बैग नया ही था | तुम्हारी एक एक चीज़ इतनी अजीज़ लग रही थी| चार साल से जो कुर्सी तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी अज तुम्हे उसपर बैठा देखकर आँखों में तलाई भर उठी थी.. तुमने मुझे गले से क्यों नहीं लगाया ये सोच रही थी पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया|| मैंने भगवान के सामने प्रणाम करने की जिद की और तुम्हे भगवान के सामने ले गई| हम दोनों ने हाथ जोड़े| मैंने तो भगवान को न जाने किन किन बातों के लिए धन्यवाद दिया, तुमने क्या कहा होगा उन्हें इतनी देर मैं नही जानती|
मन में न जाने कौन कौन सी इच्छा उछल रही थी, हर वो सपना आँखों के सामने था जो अकेले बैठ के देखा था तुम्हारे साथ करने का, अब वो पूरा होने वाला हैं ये सोच के सुकून सा भर चुका था रग रग में|
खैर रात हो चुकी अपनी ख़ुशी को थोडा रोक कर मैंने सुबह का इंतज़ार करना चाहा|
ग़मों वाली रात नींद किसे आती हैं और खुशियों वाली रात कौन सोता हैं वाली बात ही थी शायद|
आज जीवन का सबसे खुशनुमा दिन था, मेरे बगल में तुम सो रहे थे और मैं तुम्हे निहार रही थी..देख रही थी तुम्हें| देख रही थी अपने सुकून अपनी संतुष्टि को, अपने प्रेम की परिभाषा को, अपने चाँद को| तुम्हारे सांसे लेने से तुम्हारी छाती ऊपर नीचे हो रही थी, मैं गिन रही थी अपनी श्वासों को जो तुम्हारे अन्दर थी, जो तुम ले रहे थे|
थोड़े अनमने से तो थे तुम पर ऐसा होना उचित भी था| चार साल बहुत कुछ कर जाते हैं|
आखिर तुम मेरे हो, ये एहसास काफी था मेरे लिए|
२ बज रहे थे शायद.. वाशरूम जाने के लिए मैं उठी तो देखा हॉल की लाईट चालू रह गयी थी, तुम उठ ना जाओ इसलिए मै धीरे से उठी और लाईट बंद करी, तुम अपना कोट वही गिराआए थे|
हमेशा की यही आदत थी तुम्हारी, थके हुए आते और पुरे घर में अपनी चीज़े फेक दिया करते थे| कही मोज़े तो कही टाई , तो कही शर्ट..
कोट उठाया.. अरे ये क्या गिरा था जमीन पर, काग़ज का टुकड़ा...
काश मैंने वो नहीं पड़ा होता.. काश मेरे पैरों तले की जमीन ना खिसकी होती|
तुम लौट कर नहीं आए थे.. तुम तो मुझे ये कहने आये थे की तुम लौट कर नहीं आओगे| तुम तो आधे ही लौटे थे।
पैरों तले जमीं खिसकना किसे कहता हैं तब समझ आया मुझे, मैं काग़ज के उस टुकड़े को थामे दौड़ती हुई कमरे में आई तुम्हारे पास आकर रुकी, तुम्हे छुआ, और तुमने आंखे खोली, मेरा एक हाथ तुम्हारे कंधे पर और दूसरा काग़ज के उस टुकड़े को थामे हुए| चेहरा भाव हीन पलके झपकने को जरा ही मंजूर नहीं, और तुम उठकर बैठ गए.. ना कुछ बोले न मेरी और देखा..ना मैं कुछ बोली, ना मैंने तुमसे कुछ पूछा.. खड़ी रही कुछ देर इसे ही तुम्हे देखती रही.. दो घंटे पहले देखे ख्वाब मेरे सामने तहस नहस हो रहे थे, जैसे किसी पैदा हुए बच्चे की मौत हो गयी हो..
ना मेरी आँखों से आंसूं निकल रहे थे ना मैं हँस रही थी| मैं ना जाने क्या कर रही थी, ना जाने क्या सोच रही थी खड़े खड़े..
मैंने तुम्हारा हाथ थामा और तुम्हे अपने साथ ले चलने लगी, उस भगवान के सामने से गुज़रके..जहाँ कुछ देर पहले सर झुकाया था .. दरवाज़ा खोला और बाहर तक ले जाके तुम्हारा हाथ छोड़ दिया|
ना कुछ बोली,ना कुछ सुनने की चेष्टा करी, ना कोई सवाल किया, न जवाब के इंतज़ार में खड़ी रही.. ज़मीन पर घसीटता हुआ दुपट्टा आज उड़ नहीं रहा था| ना ही मेरे कंगन खनक रहे थे..
और मैंने दरवाज़ा बन्द कर दिया...
पीछे मुड कर नहीं देखा..
और उस दिन मैं समझी की मैंने तो तुम्हे कब का खो दिया था| चार साल पहले ही.. ये तो मेरी जिद थी जो लौट के आई थी.. ये वो नहीं आया था जिससे मैंने प्यार किया था, ये तो कोई और ही था जो मेरी जिद के आगे झुक कर लौटा था|
समझ गयी थी मैं की प्यार पाया जाता हैं, हासिल नहीं किया जाता| ज़बरदस्ती से प्यार का दम घुट जाता हैं|
समझ गई थी मैं|

~अतरंगीनी 

Thursday, January 12, 2017

निर्मोही

घर से दूर जाने के दो दिन पहले दादा भाई के संग पार्क की बेंच पर बैठी थी। वो बोले की मैं समझदार हूँ, मुझे कभी कुछ समझाने की जरूरत नहीं पड़ी इतने सालों में..लेकिन अब मैं इतनी दूर जा रही हूँ तो सोचा कुछ कहूँ..
तू सबकुछ करना..जो मर्जी में आए.. जैसे जीना चाहे..बस मेरी गुड़ियाँ किसी से मोह मत लगाना..ये मोह अगर लग गया और वो इंसान/चीज़ तुझसे दूर चली गयी तो फाँस सा कुछ चुभ जाएगा तेरे अंदर और फिर दुनिया कितनी भी खूबसूरत हो रास नहीं आएगी..इसलिये कभी मोह मत लगाना..
जीना, खूब जीना, मिलना, घूमना, अनुभव करना सबकुछ लेकिन अपने आप को बांध मत लेना किसी खूंटे से..क्योंकि कुछ भी स्थाई नहीं होता और हम पहले ही इतनी बंधनो में बंधे है की उन्हें छुड़ाने की कोशिश करें तो जीना दूभर हो उठेगा..इसलिए तू निर्मोही जीना..तू खूब उड़ना, तू खूब रंग भरना बस किसी चीज़ को जकड कर, अपनी भावनाओं की दासी मत बन जाना।
और मैं जी उठी, मैं खूब उड़ी, नए आसमान देखे, मन की अठखेलियां देखी..खूब पढ़ी, खूब बढ़ी और अन्तिम वर्ष के साथ ही जब उड़ान रोककर नीचे आने लगी तो पक्षियों के एक जोड़े पर मुग्ध सी हो उठी..जाते जाते वो पंछी अपना रंग भर गया... जकड़ा ही गयी मैं एक सुनहरी कैद में..अगर उसे पाने की कोशिश करती तो इसका वो साथी अकेलेपन से मर जाता, लेकिन आसमान में उड़ते हुए दोनों को देख भी तो नहीं पा रहीं थी..इतनी सेहनशीलता भी नहीं है मुझमें..
कुछ बर्बाद भी ना हो और वो पंछियों का जोड़ा भी खुश रहे और दादा भाई की सीख भी..मैंने अंधी हो जाना चुन लिया..
अब मुझे आसमान में कोई पंछी नहीं दिखता.. वो तो यही उड़ रहा अपने साथी के साथ..मैंने ही आँखे बंद कर ली...
मैं निर्मोही...निर्मोही..
भला निर्मोही कहा पीछे मुड़ कर देखते है?
बढ़ चली दिल में एक गांठ बांधे 😊😊

Friday, January 6, 2017

स्तब्ध...

किसी से बात की हो और चंद घंटो बाद मालूम हो की वो अब उस दुनिया में नहीं हैं..स्तब्धता.. हा स्तब्धता का ऐसा निर्मम सा एहसास इससे ज्यादा अच्छे तरीके से कोई और घटना शायद ही दे सके|  दुःख एवं आश्चर्य का ये निचोड़ बहुत तकलीफदेह सा होता हैं| कोई कैसे मर सकता हैं.. कितनी दुविधयों भरा प्रश्न हैं कितना कचोटने वाली बात हैं| प्रश्नचिन्ह ही प्रश्नचिन्ह ?? जवाब मांगे भी तो किससे? पूछे भी तो किससे ? वो जो जवाब दे सकता था, वो जो बता सकता था वो तो अब वजूद ही नहीं रखता | वो तो हैं ही नहीं, वो तो हवा में मिल गया| कितना घुटन भरी भावना हैं ये.. साथ ही साथ ये सच्चा बोध कराने में पुर्णतः सक्षम होता हैं की ये सब जो हमारे सामने हैं ये दुनिया, ये लोग, ये जीवन.. कुछ भी..कुछ भी चीज़ का कोई भरोसा ही नहीं| कब सब कुछ छोड़ ये प्राण पखेरू उड़ चले हम नहीं जानते| कितना कुछ सोचते हैं भविष्य के लिए कितनी तैय्यारियाँ कितने सपने देखते हैं| और उन सब में ये सोचना भूल ही जाते हैं की जीना भी हैं| हम में से लगभग आधा प्रतिशत लोग बस चल रहे हैं.. वो नहीं कर रहे हैं जो करना चाहते हैं, हाँ मैं भी उन्ही में से एक हूँ| इन वाकियो से गहरा अघात सा लगता हैं की न जाने किस भविष्य के सपने में इतने व्यस्त हैं जो होगा भी या नहीं हम नही जानते| आज को भूले बैठे हैं, कल के लिए|  ये प्रकृति बार बार हमें सिखाने की कोशिश करती हैं, और हम अनजान बन भटकते रहते हैं माया के बीच और एक दिन ऐसे ही गायब हो जाते हैं दुनिया से , तब हमारी to do list, हमारे कपडे, हमारी सारी चीज़े जिन्हें सहेजने में ही जिंदगी बीता दी वो युही धरे के धरे रह जाते हैं  

Monday, October 17, 2016

दुःख

दुख भरे पड़े है
आँखों में..
आँखों की पुतलियों के पीछे..
कुछ नामों की सतह पर..
कुछ आबादियों पर..
कुछ धड़कनों में कैद..
कुछ ऊँचा उठा उपर..
भरा हुआ है दुख;
एक एक उच्छ्वास में
एक एक श्वास में
शब्दों में, अर्थ में
और खुशियों में
मुस्कुराते चेहरे के कारण
दुख है..
दुख है अपने अंदर थामे रखा
जैसे उड़ते हुए गुब्बारे की डोर को
बांधा हुआ हो सिरे से
सीया हुआ है
होंठो को
अधर खुले तो दुख
बाहर आ जाएगा
आँखे मूंदी हुई है
छलकेगा एक एक बूँद बन
रिसेगा हर स्वास के साथ
फफक पड़ेगी देह
दुख भरे पड़े है
दीमाग की स्मृतियों में
उस धधकती देह में
दुख जल रहे है
सपने तार तार हो रहे है
रंग सुख रहे
फूल भी, तोहफे भी..
आज सन्नाटा कर रहा हिसाब
कोपभवन में लेटकर
गणना की जाती थी जिस दुख की..
कहाँ कितना बाकी है
कहाँ है अभी
और सूजन ;
और जलन;
और खारी बूंदे;
कि दुख भरे पड़े है।

~Atrangini

Friday, March 18, 2016

तलाश तुम्हारी

मैं तुम्हारी खोज में निकलती हूँ, हर जगह तलाशती हूँ तुमको, घर से सोच के निकलती हूँ की आज पा लुंगी और कल जरूर मिलेगा कहती वापस लौट आती हूँ। तुम्हें ढूंढती हु मैं उगते सूरज की लालिमा में, मिलते हो तुम मुझे तकिये पर सूखे धब्बे बन। तुम्हे ढूंढती हु मैं अपने उस नारंगी कुर्ते में जो तुम्हें पसंद था और तुम मिलते हो मुझे उस लाल लहरिये में जो घडी कर रखा है कभी ओढ़े जाने के इंतजार में, तुम्हें ढूंढती हूँ मैं संगीत की हर धुन, हर साज़,हर राग में और मिलते हो तुम मुझे बहती हवा के शोर, लहरों के हिलोरों में। मैं मुस्कुराती हूँ और ढूंढती हूँ तुम्हें अपने खिले होंठो में पर होंठों के सहारे नहीं, तुम मुझे मिलते हो आँखों में, मैं तराशती हूँ तुम्हें खुद में, मिलते हो तुम मुझे यादों के अंदर , पाती हूँ 'हमें' मैं युगलों के अंदर, पाती हूँ 'हमें' मैं पुराने खतों में।
कभी नज़्म में कभी वक़्त बनकर..
कभी किरदार में कभी कोई कहानी बनकर..
कभी ओंस बन तो कभी आंसू बन..
कभी हवा बन तो कभी मौसम बन..
मिल जाते हो तुम मुझे सड़क के किनारे कभी..
दिख जाते हो मुझे ठहरते पानी बन झीलों के करीब..
झांक पड़ते हो कभी कांच के अंदर से..
कभी धुन बन मेरे अंदर रम जाते हो..
कौन कहता है की तुम अब नहीं हो
पा लेती हूँ तुम्हे हर रोज कही न कहीं
कल सच्ची में मिलेगा कहकर घर लौट जाती हूँ।

~अतरंगिनी।

Wednesday, March 2, 2016

चाँद

कोहनियों के ब़ल चलकर
चाँद आज कितना करीब आया है
कांच की खिड़की से सरकती
बारिश की बूंदों की
कतारें और शीशे के इस
पार भीगा हुआ मेरा मन
चान्दिनी में नहाये हुए कुछ ख्वाब
यादों की चादर भिगोने लगे
आँखों के समंदर में
घुलकर बह निकली एक
तम्मना तुमसे जुड़ने की
थरथराते होटों पे तुम्हारे
लबों का एहसास
एक गर्माहट से भर गयी
सर्द तूफानी रात में।

~अज्ञात।

Saturday, January 23, 2016

तुम्हें अलविदा..

कभीकभी मेरा मन तुम्हें आवाज़ दे उठता है जब सुबह उठ पहला ख़याल तुम होते हो नींदों में घुल सपनों में आते हो जब हरी हो जाती है बरसों पुरानी कोई याद या बरबस ही दिख पड़ता है कोई तुम जैसा या तुम जैसा शर्ट या तुम जैसी मुस्कराहट या तुम्हारे जैसी आवाज़ अगर प्यार से पुकार उठता है कोई "भावना" तो दिल भूल जाता है के अब तुम नहीं हो और पलट कर उस आवाज़ की तलाश करने लग जाता है ओ छोड़ कर जाने वाले क्या तुम मुझे इस बात का जवाब दे सकते हो की कब तुम अपनी यादों की गठरी बांधकर मेरे दिल के कोने को अलविदा कहोगे कब जकड़ कर बैठे मेरे दिमाग के उस हिस्से को खली करोगे क्योंकि मैं भी तुम्हारी तरह आज़ाद होना चाहती हूँ उड़ने के लिए फीतों को खोल देना चाहती हूँ विस्मृत कर देना चाहती हु तुम्हारे साथ बिताये सारे पलो को क्योंकि मैं भी उड़ना चाहती हु कोई सपने मेरे भी थे उनपर पड़ी धूल हटाना चाहती हु आज़ाद हो तुम, आज़ाद रहो मुझे क्यों अपनी यादों का ग़ुलाम बनाते हो ओ छोड़ कर जाने वाले ले जाओ ले जाओ अपने साथ अपना हर रंग अपना हर शब्द और अपना हर गीत और तुम्हारा हर वादा जिनकी स्मृति मुझे बेचैनी से अधीर रात में उठा देती है गुमशुदा हो जाना की मेरी आत्मा का कोई भी अंश तुम्हें ढूंढ न पाए तुम्हारी तलाश में गोते तो लगाये पर कभी कुछ खोज न पाए क्योकिं कुछ भरने के लिए पात्र का खली होना जरुरी है और मेरे तो ज़र्रे ज़र्रे में आज भी तुम झलकते हो पर अब बहुत हो गया मेरा आसमान मुझे बुला रहा है और मैं जकड से छूटकर हवा के संग उसी लय में उड़ान भरना चाहती हूँ बस यही आरज़ू है के लौट जाओ जहा से आए थे जहाँ से उद्गम किया था वहाँ समाहित कर दो खुद को लौट जाओ मेरे प्रिय तुम्हें अलविदा...