और जिस पल का इन्तेजार कर रही थी वो आ गया, तुम मेरे सामने खड़े थे| मुस्कुराये मुझे देख कर पर वो बात नही थी उस हँसी में, होती भी कैसे. चार साल में थोडा तो असहज हो ही जाते थे, वो भी तब जब किसी और के साथ रहो तो| मैं थोडा सा पीछे हटी और तुम अंदर आए| बैग नया ही था | तुम्हारी एक एक चीज़ इतनी अजीज़ लग रही थी| चार साल से जो कुर्सी तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी अज तुम्हे उसपर बैठा देखकर आँखों में तलाई भर उठी थी.. तुमने मुझे गले से क्यों नहीं लगाया ये सोच रही थी पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया|| मैंने भगवान के सामने प्रणाम करने की जिद की और तुम्हे भगवान के सामने ले गई| हम दोनों ने हाथ जोड़े| मैंने तो भगवान को न जाने किन किन बातों के लिए धन्यवाद दिया, तुमने क्या कहा होगा उन्हें इतनी देर मैं नही जानती|
मन में न जाने कौन कौन सी इच्छा उछल रही थी, हर वो सपना आँखों के सामने था जो अकेले बैठ के देखा था तुम्हारे साथ करने का, अब वो पूरा होने वाला हैं ये सोच के सुकून सा भर चुका था रग रग में|
खैर रात हो चुकी अपनी ख़ुशी को थोडा रोक कर मैंने सुबह का इंतज़ार करना चाहा|
ग़मों वाली रात नींद किसे आती हैं और खुशियों वाली रात कौन सोता हैं वाली बात ही थी शायद|
आज जीवन का सबसे खुशनुमा दिन था, मेरे बगल में तुम सो रहे थे और मैं तुम्हे निहार रही थी..देख रही थी तुम्हें| देख रही थी अपने सुकून अपनी संतुष्टि को, अपने प्रेम की परिभाषा को, अपने चाँद को| तुम्हारे सांसे लेने से तुम्हारी छाती ऊपर नीचे हो रही थी, मैं गिन रही थी अपनी श्वासों को जो तुम्हारे अन्दर थी, जो तुम ले रहे थे|
थोड़े अनमने से तो थे तुम पर ऐसा होना उचित भी था| चार साल बहुत कुछ कर जाते हैं|
आखिर तुम मेरे हो, ये एहसास काफी था मेरे लिए|
२ बज रहे थे शायद.. वाशरूम जाने के लिए मैं उठी तो देखा हॉल की लाईट चालू रह गयी थी, तुम उठ ना जाओ इसलिए मै धीरे से उठी और लाईट बंद करी, तुम अपना कोट वही गिराआए थे|
हमेशा की यही आदत थी तुम्हारी, थके हुए आते और पुरे घर में अपनी चीज़े फेक दिया करते थे| कही मोज़े तो कही टाई , तो कही शर्ट..
कोट उठाया.. अरे ये क्या गिरा था जमीन पर, काग़ज का टुकड़ा...
काश मैंने वो नहीं पड़ा होता.. काश मेरे पैरों तले की जमीन ना खिसकी होती|
तुम लौट कर नहीं आए थे.. तुम तो मुझे ये कहने आये थे की तुम लौट कर नहीं आओगे| तुम तो आधे ही लौटे थे।
पैरों तले जमीं खिसकना किसे कहता हैं तब समझ आया मुझे, मैं काग़ज के उस टुकड़े को थामे दौड़ती हुई कमरे में आई तुम्हारे पास आकर रुकी, तुम्हे छुआ, और तुमने आंखे खोली, मेरा एक हाथ तुम्हारे कंधे पर और दूसरा काग़ज के उस टुकड़े को थामे हुए| चेहरा भाव हीन पलके झपकने को जरा ही मंजूर नहीं, और तुम उठकर बैठ गए.. ना कुछ बोले न मेरी और देखा..ना मैं कुछ बोली, ना मैंने तुमसे कुछ पूछा.. खड़ी रही कुछ देर इसे ही तुम्हे देखती रही.. दो घंटे पहले देखे ख्वाब मेरे सामने तहस नहस हो रहे थे, जैसे किसी पैदा हुए बच्चे की मौत हो गयी हो..
ना मेरी आँखों से आंसूं निकल रहे थे ना मैं हँस रही थी| मैं ना जाने क्या कर रही थी, ना जाने क्या सोच रही थी खड़े खड़े..
मैंने तुम्हारा हाथ थामा और तुम्हे अपने साथ ले चलने लगी, उस भगवान के सामने से गुज़रके..जहाँ कुछ देर पहले सर झुकाया था .. दरवाज़ा खोला और बाहर तक ले जाके तुम्हारा हाथ छोड़ दिया|
ना कुछ बोली,ना कुछ सुनने की चेष्टा करी, ना कोई सवाल किया, न जवाब के इंतज़ार में खड़ी रही.. ज़मीन पर घसीटता हुआ दुपट्टा आज उड़ नहीं रहा था| ना ही मेरे कंगन खनक रहे थे..
और मैंने दरवाज़ा बन्द कर दिया...
पीछे मुड कर नहीं देखा..
और उस दिन मैं समझी की मैंने तो तुम्हे कब का खो दिया था| चार साल पहले ही.. ये तो मेरी जिद थी जो लौट के आई थी.. ये वो नहीं आया था जिससे मैंने प्यार किया था, ये तो कोई और ही था जो मेरी जिद के आगे झुक कर लौटा था|
समझ गयी थी मैं की प्यार पाया जाता हैं, हासिल नहीं किया जाता| ज़बरदस्ती से प्यार का दम घुट जाता हैं|
समझ गई थी मैं|
~अतरंगीनी